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रमज़ान शरीफ़ के आखिरी जुमे को चंद रकअतें पढ़ने से पुरी उम्र की क़जा नमाजे माफ नहीं होती-नसीम अख्तर रजा

रमज़ान शरीफ़ के आखिरी जुमे को चंद रकअतें पढ़ने से पुरी उम्र की क़जा नमाजे माफ नहीं होती-नसीम अख्तर रजा

मुन्ना अंसारी की रिपोर्ट

महराजगंज। कुछ लोग इस गलत फहमी में मुब्तिला हैं कि रमज़ान के आखिरी जुमे को चंद रकअतें पढ़ने से पूरी उम्र की क़ज़ा नमाज़ें मुआफ़ हो जाती हैं, बाज़ जगहों पर तो इस का खास एहतिमाम भी किया जाता है कि मानो कोई बम्पर ऑफर आया हो।

एक मर्तबा मैंने एक मस्जिद में देखा कि एक इश्तिहार लगा हुआ है जिसमें पूरी उम्र की क़ज़ा नमाज़ों को चुटकी में मुआफ़ करवाने का तरीका लिखा हुआ था और ताईद में चंद बे असल रिवायात भी लिखी हुई थीं….
मैंने फौरन उस इश्तिहार को वहाँ से हटा दिया और उसके लगाने वाले के मुताल्लिक दरियाफ्त किया लेकिन कुछ मालूम न हो सका।

ऐसा ऑफर देखने के बाद वो लोग जिनकी बीस-तीस साल की नमाज़ें क़ज़ा हैं, अपने जज़्बात पर काबू नहीं कर पाते और अस्ल जाने बग़ैर इसपर यकीन कर लेते हैं, इस तरह की बातें बिल्कुल गलत हैं और इनकी कोई अस्ल नहीं है, उलमा-ए-अहले सुन्नत ने इस का रद्द किया है और इसे नाजायज़ क़रार दिया है।

इमाम-ए-अहले सुन्नत, आला हज़रत रहिमहुल्लाह इसके मुताल्लिक़ लिखते हैं कि ये जाहिलों की ईजाद और महज़ नाजायज़ व बातिल है।

इमाम-ए-अहले सुन्नत एक दूसरे मकाम पर लिखते हैं के आखिरी जुमु’आ में इसका पढ़ना इख़्तिरह (Innovated) किया गया है और इसमें ये समझा जाता है कि इस नमाज़ से उम्र भर की अपनी और अपने माँ बाप की भी क़ज़ाएं उतर जाती हैं, महज़ बातिल व बिदअत-ए-शनिआ है, किसी मोतबर किताब में इसका असलन निशान नहीं।

सदरुश्शरिआ, हज़रत अल्लामा मुफ़्ती अमजद अली आज़मी रहिमहुल्लाह लिखते हैं कि शबे क़द्र या रमज़ान के आखिरी जुमे को जो ये क़ज़ा-ए-उमरी जमा’अत से पढ़ते हैं और ये समझते हैं कि उम्र भर की क़ज़ाएं इसी एक नमाज़ से अदा हो गईं, ये बातिल महज़ है।

हज़रत अल्लामा शरीफुल हक़ अमजदी अलैहिर्रहमा ने भी इस का रद्द किया है और इसकी ताईद में पेश की जाने वाली रिवायात को अल्लामा मुल्ला अली क़ारी हनफ़ी अलैहिर्रहमा के हवाले से मौज़ू (झूठा) क़रार दिया है।

अल्लामा क़ाज़ी शमशुद्दीन अहमद अलैहिर्रहमा लिखते हैं कि बाज़ लोग शबे क़द्र या आखिरी रमज़ान में जो नमाज़े क़ज़ा-ए-उमरी के नाम से पढ़ते हैं और ये समझते हैं कि उम्र भर की क़ज़ाओं के लिए ये काफी है, ये बिल्कुल गलत और बातिल महज़ है।

हज़रत अल्लामा मुफ़्ती मुहम्मद वक़ारूद्दीन क़ादरी रज़वी अलैहिर्रहमा लिखते हैं कि बाज़ इलाक़ो में जो ये मशहूर है कि रमज़ान के आखिरी जुमे को चंद रकाअत नमाज़ क़ज़ा-ए-उमरी की नियत से पढ़ते हैं और ये ख़याल किया जाता है कि ये पूरी उम्र की क़ज़ा नमाज़ो के क़ायम मकाम है, ये गलत है…., जितनी भी नमाज़े क़ज़ा हुई हैं उनको अलग-अलग पढ़ना ज़रूरी है।

हज़रत अल्लामा ग़ुलाम रसूल सईदी रहिमहुल्लाह लिखते हैं कि बाज़ अनपढ़ लोगो में मशहूर है कि रमज़ान के आख़िरी जुमा’आ को एक दिन की पांच नमाज़े वित्र समेत पढ़ ली जाएं तो सारी उम्र की क़ज़ा नमाज़ें अदा हो जाती हैं और इस को क़ज़ा-ए-उमरी कहते हैं, ये क़तअन बातिल है।

रमज़ान की खुसूसियत, फ़ज़ीलत और अज्रो सवाब की ज़्यादती एक अलग बात है लेकिन एक दिन की क़ज़ा नमाज़ें पढ़ने से एक दिन की ही अदा होगी, सारी उम्र की अदा नही होंगी।

उक्त बातों से साबित हुआ कि ऐसी कोई नमाज़ नहीं है जिसे पढ़ने से पूरी उम्र की क़ज़ा नमाज़ अदा हो जाये, ये जो नमाज़ पढ़ी जाती है इसकी कोई अस्ल नहीं है, ये नाजायज़ व बातिल है।

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